Friday, 5 May 2017

मनमानी

ताज्जुब हैं कि वो शख़्स मेरा भी नहीं
मेरे बिना जीना, जिसे गवारा भी नहीं।
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हक़ जताने वाला, उम्मीद पर भी उतरे
जैसे खेल हो उसी का, हमारा भी नहीं।
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रिश्ता हो अगर, तो जिम्मेदारी भी हो
महबूब का मतलब, आवारा भी नहीं।
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टूटकर यूँ ख़्वाहिशें, मुकम्मल कैसे हो
आसमान का मै कोई सितारा भी नहीं।
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बेबसी मोहब्बत पे हावी क्यों होती हैं?
ऐसा नहीं कि कोई और चारा भी नहीं।
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आशिक़ी अब इश्क़ में, तब्दील तो हो
ताउम्र तो ऐसे अपना, गुजारा भी नहीं।
~ श्रद्धा (30 January)

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