Friday 29 September 2017

उस पार का होकर भी, इस पार रहता हैं

उस पार का होकर भी, इस पार रहता हैं
इत्मिनान  से बैठकर भी, बेक़रार रहता हैं।

दिल के बाहर तो मियाँ, अदाकारी होती हैं
दिल के अंदर लेकिन, इक ग़ुबार रहता  हैं।

फ़क़त ख़ुदा के सामने, मग़रूरी चलती हैं
बंदे के लिए तो फ़क़ीर, ख़ाक़सार रहता हैं।

ख़ुद से ग़द्दारी की, और इंतहा क्या होगी?
तुझे बेदख़ल करके, तेरा इंतज़ार रहता हैं।
~ Shraddha

Wednesday 27 September 2017

बड़े ही शान-ओ-शौकत से वो, गल्ले पे बैठेंगे।

चौके छक्के ख़ुद ही आकर, बल्ले पे  बैठेंगे
क़लम न छुए हाथ भी चाबी के छल्ले पे बैठेंगे।
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चवन्नी अठन्नी का भी जिनको, फ़र्क नहीं पता
बड़े ही शान-ओ-शौकत से वो, गल्ले पे बैठेंगे।
~ श्रद्धा

Tuesday 26 September 2017

नुमाइश के दौर में ये हुनर भी, मेज़बान रख़ते हैं।

नुमाइश के  दौर में ये हुनर भी, मेज़बान रख़ते हैं
थाली मे निवाले कम, महँगा दस्तरख़ान  रख़ते हैं।
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गया वो दौर कि इश्क में, हथेली पर जान होती थी
अब तो सर झुकाए सब  उँगलियों में जान रख़ते हैं।
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सरेआम तहज़ीब नाप कर, फ़क़त इतना समझा हैं
'छोटी' सोच वाले ही अक़्सर 'लंबी' ज़ुबान रख़ते हैं।
~ श्रद्धा

Monday 25 September 2017

थाली मे निवाले कम, महँगा दस्तरख़ान रख़ते हैं।

नुमाइश के दौर में ये हूनर भी, मेज़बान रख़ते हैं
थाली मे निवाले कम, महँगा दस्तरख़ान रख़ते हैं।
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गाँव में गाँव वालों सें भी, पिछड़े तो वो लगते हैं
सफ़ेद हादसे पर भी जो, फ़िरंगी ज़बान रख़ते हैं।
~ श्रद्धा

Saturday 23 September 2017

मेरी ख़ामोशी को क्यो ग़ुरूर समझ लेतें है। .

न जाने क्या क्या आप हुज़ूर समझ लेतें है
मेरी ख़ामोशी को क्यो ग़ुरूर समझ लेतें है।
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मुसलसल कदमों मे, पड़ा हैं  अग़र पत्थर
क्या ख़ूब कि उसें, कोहिनूर समझ लेतें हैं।
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जहन्नुम से बचाने के सदके तो वो करती है
ये और किसे जन्नत की, हूर समझ लेतें हैं।
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तेरे तसव्वुर से शराफ़त, धोख़े में आ गई है
बैठे बैठे सब नशे मे हमें, चूर समझ लेतें हैं।
~ श्रद्धा

Thursday 21 September 2017

ग़म को पढ़ने में कोई माहिर नहीं हैं।

यूँ भी तो नहीं, की आँख़ों से ज़ाहिर नहीं हैं
कलम से कहने वाला हर कोई शाहीर नहीं हैं।
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यूँ तो ज़मानें में, होशियार बने फ़िरते हैं सब
बस ग़म को पढ़ने में हि, कोई माहिर नहीं हैं।
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दुनिया मे घूमकर हि असली दुनिया को जाना
की वो तो घर के अंदर हैं, कही बाहिर नहीं है।
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चश्मदीद कई होते हैं, मेरे चश्म-ए-तर पे यूँ तो
लेकिन मुसाफ़िर है सब कोई मुज़ाहिर नहीं हैं।
~ श्रद्धा

Tuesday 19 September 2017

Ajooba

आज भी दोपहरी में, डूबा लगता हैं
ये दिल भी मुझको, अजूबा लगता हैं।

पहली ही नज़र में मग़रूर दिख़ रहा हैं
उसे तो ज़िन्दगी का, तजुर्बा लगता हैं।

इस दौर में ख़ामोशी भी वहीं पनपती हैं
सब को जो अपना, हमज़ुबा लगता हैं।

ज्यादा बातें सुनकर, ज़हन ये सोचता हैं
वो समझदार होगा, जो बेज़ुबा लगता हैं।
~ Shraddha

Sunday 17 September 2017

Numaish

जश्न के नाम पर ये जो
नुमाइश करते हो न तुम

यहीं सबब हैं की मेरी
नज़रअंदाज़ी को,
रश्क समझ लेते हैं लोग!
~ shraddha

Saturday 9 September 2017

Tu do jaam laga ke pagle khud ko diwana kehta hai

वो तो नहीं कहते, उनका हर एक ताना कहता हैं
मैं हारकर भी नज़र में हूँ ये ख़ुद ज़माना कहता हैं।
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मोहब्बत अच्छे अच्छे को मियाँ, होश में ला देती हैं
तू दो जाम लगाके पगले ख़ुद को दीवाना कहता हैं।
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तेरे बुलंदी की सुर्ख़ियाँ तो, हर अख़बार मे छपती हैं
तेरी हार का किस्सा मगर सिर्फ़ ये विराना कहता हैं।
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इस दौर के नग़मे भले ही, 'मोहब्बत करना' सिख़ा दे
'मोहब्बत निभाए कैसे' उस दौर का तराना कहता हैं।
~ Shraddha

Monday 4 September 2017

Kisi ki jeb me rehna

ताज में जड़ें रहना हैं,  या क़बूल हैं पाज़ेब में रहना
रहना हैं किसी के दिल में या किसी की जेब में रहना।

मान लो तो बहुत सुक़ून हैं, एक वक़्त के फ़ाक़े में भी
मानो तो बहुत मुश्किल हैं, शोहरत के फ़रेब में रहना।
~ Shraddha 

Fankar apni khalwat me, khud ko tabinda kar lete hai

अच्छी ख़ासी ज़िन्दगी में, ये इक काम गंदा कर लेते हैं
फ़क़त शायरी के वास्ते, रोज़ ग़म को ज़िन्दा कर लेते हैं।
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मोहब्बत में ख़ामोशी और इशारे भी जवाब देने लगे तो
बड़ी ही मायूसी से हम, ज़ुबान को शर्मिन्दा कर  लेते हैं।
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ज़रूरत कहाँ हैं इन्हें, इस फ़र्जी दुनिया के चकाचौंध की
फ़नकार अपनी ख़लवत में, ख़ुद को ताबिंदा कर लेते हैं।
~ Shraddha

Friday 1 September 2017

Tere tasavvur me jab shumar rehte hai!

तेरे तसव्वूर में, जब शुमार रहते हैं
फक़त उसी वक़्त ग़ुलज़ार, रहते हैं।
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दस से पाँच तक तो, काम रहता हैं
या सच कहे तो तभी बेक़ार रहते हैं।
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इक तुझसे वक़्त को नगद मे लेकर
कितने ही हैं जिन पे, उधार रहते हैं।
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जब से मिला हैं, 'दिल' को ठिकाना
'ज़हन' से न जाने, कहां यार रहते हैं।
~ श्रद्धा