Thursday, 21 September 2017

ग़म को पढ़ने में कोई माहिर नहीं हैं।

यूँ भी तो नहीं, की आँख़ों से ज़ाहिर नहीं हैं
कलम से कहने वाला हर कोई शाहीर नहीं हैं।
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यूँ तो ज़मानें में, होशियार बने फ़िरते हैं सब
बस ग़म को पढ़ने में हि, कोई माहिर नहीं हैं।
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दुनिया मे घूमकर हि असली दुनिया को जाना
की वो तो घर के अंदर हैं, कही बाहिर नहीं है।
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चश्मदीद कई होते हैं, मेरे चश्म-ए-तर पे यूँ तो
लेकिन मुसाफ़िर है सब कोई मुज़ाहिर नहीं हैं।
~ श्रद्धा

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