Friday, 28 April 2017

ये ज़िन्दगी अपने पत्तों को कब खोल दे, क्या मालूम

न चाहते हुए भी लहजे में, जी हुज़ूरी आ जाती है
अब ज़िन्दगी हैं तो बीन बताए मजबूरी आ जाती हैं।

नौबत आने पर खुद्दारी पर हि पेट भर लिया जिसने
उसको नज़र अब बच्चों की, भुखमरी आ जाती हैं।

ये ज़िन्दगी अपने पत्तों को कब खोल दे, क्या मालूम
दाँव पर अपनी सबसे महंगी वफ़ादारी आ जाती हैं।

फक्र करना खुद्दारी पे, गुरूर करना अलग बात हैं
कौन जाने एकदम से क़िस्मत की बारी आ जाती हैं।
~ श्रद्धा

Saturday, 22 April 2017

दिखावे के होते हैं सारे दिल के गुलिस्ताँ!

आजकल कोई दिल्लगी का मरीज़ नहीं रहता
यार तो रखते हैं कई, कोई अज़ीज़ नहीं रहता।
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सलीक़े से हि नीभ जाते है जल्दबाजी में रिश्ते
जो हक़ से दखल दे, ऐसा बदतमीज़ नहीं रहता।
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इस खुदगर्जी भरे दौर में, चलने वाला हर शख्स
सहारा ले के चलता हैं, पर अपाहिज नहीं रहता।
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दिखावे के होते हैं सारे दिल के गुलिस्ताँ जिनमें
मोहब्बतों से बोया जाएँ, ऐसा बीज नहीं रहता।
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माॅडर्न लोगों में अदब के शायद, तरीके और होंगे
बिछड़ते वक्त होठों पर खुदा हाफिज नहीं रहता।
~ श्रद्धा

Thursday, 20 April 2017

बेनाम रिश्ता हैं उसे खत्म कर दिया जाए।

क्यूँ न एक दूजे पर, ये रहम कर दिया जाए
जो बेनाम रिश्ता हैं, उसे खत्म कर दिया जाए।

हसरत कहती हैं, मोहब्बत सुकून का नाम हैं
जो हैं ये तकलीफ, तो इसे कम कर दिया जाए।
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बयां होती हैं मोहब्बत, ख़ामोशी से? ये झूठ हैं
चलो कि इस भ्रम को भी दफ़न कर दिया जाए।

आज लम्हे बन गए, तो फिर यादें रह जाएंगी
कल भर सकें, ऐसा कोई जख़्म कर दिया जाए।

मुंतज़िर हैं मुद्दत से, इक हसरत में जो आँखें
अपने हि अश्क़ो से, उन्हें नम कर दिया जाए।

आग़ाज़ कर देता हैं ख़यालों मैं, दिल-ए-नादान
चलो कि ये किस्सा भी, खत्म कर दिया जाए।
~ श्रद्धा

Wednesday, 19 April 2017

सबब-ए-गुफ़्तगू

महफ़िल में तुझे मुझे देख कर, "आप" कहने लगे हैं
तेरे यार भी अपने रिश्ते को, साफ़ साफ़ कहने लगे हैं।

फ़कत अपनी ही नज़रें हैं जो गवारा नहीं करती, वर्ना
जो हमने कुबुला हि नहीं उसके खिलाफ कहने लगे हैं।

दरमियान जो ख़ामोशी हैं, इक वहीं हैं सबब-ए-गुफ़्तगू
और लोग हैं की तेरी मेरी बातें, बेहिसाब कहने लगे हैं।

सामना हो तो दोस्त भी, बेवजह मुस्कूराने लग जाते हैं
सवाल तो किए हि नहीं हमने, वो जवाब कहने लगे हैं।

अब तक हिचकिचाहट पर ही, कायम रहें हैं हम तुम
पर सब तो अपने रिश्ते पर, साफ़ साफ़ कहने लगे हैं।
~ श्रद्धा

Wednesday, 5 April 2017

ख़ामोशी से ताल्लूक नहीं मजबूरी जाहिर होती हैं...

जो रिश्ता हैं दरमियाँ, उस पर नाज होना चाहिए
मोहब्बत इस लफ्ज का भी लिहाज होना चाहिए।
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ख़ामोशी से ताल्लूक नहीं मजबूरी जाहिर होती हैं
कभी मुझे तो कभी तुझे भी नाराज होना चाहिए।
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हामी नहीं भरी जाती, नजरअंदाजी से ही सब में
जहाँ हक हो कभी वहाँ पर, ऐतराज होना चाहिए।
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अंजाम दिल से नहीं जेहनी तौर से होता हैं अक्सर
किसी मोड़ पर ही सही नया आगाज होना चाहिए।
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नशे सा जो चढ़ जाएँ, तो मुकम्मल होता हैं इश्क
अगर हैं ये बीमारी, तो फिर इलाज होना चाहिए।
~ श्रद्धा