Friday, 20 October 2017

हम हैं की चेहरों को, पढ़ के चलते हैं।

अपने तजुर्बों को पकड़़ के चलते हैं
लोग समझते हैं, अकड़ के चलते हैं।
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रिहा किया हैं, चंद लफ्जों ने दिलों से
तभी ख़ामोशी में जकड़ के चलते हैं।
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इम्तहान रिश्तों के पार होंगे भी कैसे?
हम हैं की चेहरों को, पढ़ के चलते हैं।
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वो लोग जो किसी के झमेलो में न रहें
शायद ख़ुद से ही, झगड़ के चलते हैं।
~ श्रद्धा

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