Monday, 27 November 2017

नज़र तो तुम्हारी, अपने बस मे नहीं है...


ख़ामख़ा कि आदतों को पालते क्यूँ हो?
बात बात पें दिल से, निकालते क्यूँ हो?

महफिलों में मुझसे, किनारा करने वाले
मेरी शायरी मे ख़ुद को ख़ंगालते क्यूँ हो?

नज़र तो तुम्हारी, अपने बस मे नहीं  है
बात ज़ुबान तक आए तो टालते क्यूँ हो?

ख़ामोशी काफ़ी हैं तुम्हें बहकाने के लिए
तुम शराब से ख़ुद को, संभालते क्यूँ हो?

मुहब्बत से कहते हो,  मुहब्बत  नहीं हैं
तुम ख़ुद को हि धोख़े में, डालते क्यूँ हो?
~ Shraddha

Monday, 13 November 2017

कभी सोचा न था, हम इतने कमज़र्फ़ निकलेंगे।

ज़रा सा  दिल दुख़ेगा, और हर्फ़  हर्फ़ निकलेंगे
कभी सोचा न था, हम इतने  कमज़र्फ़ निकलेंगे।

ध्यान रहे कि सडकों से ही, तफ़तीश की जाएगी
क्या रास्ता दिख़ाया हमें हम जिस तरफ़ निकलेंगे।

ज़रुरत होगी गरमाहट कि, वक्त ठंडा  पड़ने पर
आग उगलने वाले लोग ही, सख़्त बरफ निकलेंगे।

माना कि सूख़े दरख़्तों से, फल मिला नही करते
कल छाँव देने के लिए मगर, यही ज़र्फ़ निकलेंगे।
~ श्रद्धा

Saturday, 11 November 2017

इश्क और मोहब्बत

ग़ुमान इस बात का था,
इश्क़ से मुख़ातिब हुआ था मैं।
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मलाल इस बात का हैं,
मुहब्बत से महरूम रह गया!
~ श्रद्धा

Thursday, 2 November 2017

हम तो इसी फ़िराक़ मे हैं, कि डूबोए भवर हमको

माना दरमियाँ  हो गया है मनमुटाव, क्या  कहिए
पर आज भी बरक़रार है उनसे लगाव क्या कहिए।

हम तो इसी फ़िराक़ मे हैं, कि डूबोए  भवर हमको
लेकिन रफ़्तार मे है ज़िन्दगी का बहाव क्या कहिए।

कितने नौजवान सर को हाथ पकड़े कहते फिरते हैं
अब तो ख़ैर हम ख़ेल  ही चुके ये दाँव, क्या कहिए।

ज़िन्दगी  की कड़ी धूप, हम झेल भी चुके अब क्या
सर्दियों में भला किस काम की ये छाँव, क्या कहिए।
~ Shraddha