Monday, 5 January 2015

माँ के हाथों का निवाला तो जन्नत से भी बढकर है.....

बुरे वक्त की आजमाईशों में जब जब मै फसता था
अपनों के उस खोकले प्यार पर मन ही मन मे हसता था।

ईबादत में मांगा हो और हकीकत में पालीया
वो ईनसान तो नही होगा, जरूर कोई फरीश्ता था।

खुशबू लेकर चले गए और पलटकर जीसे देखा तक नही
अकेले कीसी कोने मे पडा वो मेरे दील का गुलदस्ता था।

हसते हसते कंधो पर जो बोझ उठाया करते थे
गुजरे हुए बचपन का वो तो स्कुल का बस्ता था।

माँ के हाथों का निवाला तो जन्नत से भी बढकर है
हजारों रुपयो से खरीदा हुआ वो खाना बडा सस्ता था।

भीड़ बरी मेहफीलें भी काटों की तरह चुभती है
ईस तनहाई से, ईस वीरानी से आखिर कैसा रीश्ता था।

मोहब्बत जब जब हुई तो गजब की हुईं यारो
मै तो जैसे मुंगफल्ली, और वो महंगा पीस्ता था।
- अनामिका

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