Wednesday, 27 May 2015

दुआ

बहुत इतरा रहा हैं चीराग कहीं हवा ना लग जाएँ
मेरी जख्मी किस्मत को कोई दवा ना लग जाएँ
मैं बँधा हूँ इस तरह ए मालिक तेरी बंदगी में
मेरी दुआ हैं उसे मेरी बद्दुआ ना लग जाएँ।
~ अनामिका

Monday, 25 May 2015

इम्तिहान की घड़ी में अक्सर नमाजी ही काफीर निकलता हैं।

दिलजलों की बस्ती मे कोई गालिब तो कोई मीर निकलता हैं
टूटे हुए दिलों सें जब शेर-ओ-शायरी का तीर निकलता हैं।

ऊपर वाले की बंदगी में सबार के मायने समझने चाहिए
इम्तिहान की घड़ी में अक्सर नमाजी ही काफीर निकलता हैं।

शक्ल और अकल का वैसे कोई रिश्ता ही कब रहा हैं यारो
भोली सूरत के पीछे क्या पता कब दिमाग शातिर निकलता हैं।

जलजला कभी जो आएगा जहाँ अपनी  मर्जी दफन हो जाएंगे
क्या फर्क पड़ता हैं फीर वो किस की जागीर निकलता हैं।
~ अनामिका

Saturday, 23 May 2015

गरमी का मौसम

बच्चों को छुट्टियाँ लगती हैं
गरमी का मौसम आता हैं
साथ में गुजरे बचपन की
मीठी यादें लाता हैं।

याद आता हैं मुझे
अब वो नाना-नानी का गाँव
तपती गरमी के मौसम में
वो पीपल की ठंडी छाँव।

सारे मिल के सुनते थे
नानी की परियों की कहानी
दोपहर में नहाने जाते थे
वो नदियों का ठंडा पानी।

गुजरे बचपन की ठंडक
न जाने कहाँ खो गई हैं?
अब तो लगता हैं प्रकृती भी
अपना नियम भूल गईं हैं।

इसी गरमी के मौसम में कभी
सारी जमीने जल जाती हैं
तो कभी अचानक बारिश से
किसान की उम्मीदे धूल जाती हैं।

गरमी से बेहाल आदमी
बस इल्जाम देने को तैयार हैं
जरा सोचो इस अवस्था पर
सब बराबर जिम्मेदार हैं।

शहर पर शहर बढेंगे
पर रौनक कहाँ से मिलेगी?
पेड़ पौधे कट जाएंगे
तो ठंडक कहाँ से मिलेगी?

कहर होते ही सवरने की
किसे मोहलत मिलती हैं?
जब जब कुदरत खुद अपनी
बगावत पर उतर आती हैं।

सुनना, सूनाना छोड़ कर
अब सब को सोचना चाहिए।
कुदरत के इस विनाश को
मिल के रोकना चाहिए।
~ अनेमिका

Thursday, 21 May 2015

जिंदगी के रंगो में मेरे जीने का रंग फीका हैं आँसूओंको छुपाकर मैंने मुस्कूराना सीखा हैं।

जिंदगी के रंगो में मेरे जीने का रंग फीका हैं
आँसूओंको छुपाकर मैंने मुस्कूराना सीखा हैं।

गुजरती नहीं मजबूरी मे, गुजारी जाती हैं अक्सर
न जीने का कोई बहाना हैं न मरने का तरीका हैं।

हुनर खामोश होकर जब तकदीर बोलने लगती हैं
तब अना और जमीर मेरा कौडी कें दाम बिका है।

हवाओं की रफ्तार सें भागने में लगे हैं सब यहाँ
राह पे रुके पत्थर को तो सबने पैरों सें फेंका हैं

शिकायत करने से अच्छा उसकी इबादत कर लिया करो
आने वाला जाएगा ही, कौन यहाँ पर टीका हैं।
~ अनामिका

Wednesday, 20 May 2015

चंद शेर....

चंद शेर....

खुशबू के लिए खुद का किरदार भी साफ रखना पड़ता हैं
सिर्फ लोबान के जलने से तो भीतर मे महक नहीं आती।

पढ़ें लिखे शायर को भी दर्द की तालीम लेनी पड़ती हैं
ऐसे वैसे तो कलम में किसी के भी चमक नहीं आती।

महज चूडीयों से क्या होगा? पहनाने वाला भी तो हो
यूँ ही अपने आप तो चूडीयों में खनक नहीं आती।

शहर की इन गलियों से कभी कभार मुड़ भी जाया करो
तरक्की के सफर में चलते हुए गाँवो की सड़क नही आती।
~ अनामिका

Monday, 18 May 2015

बस खुद्दारी ही मेरी दौलत हैं जो मेरी हस्ती में रहती है

बस खुद्दारी ही मेरी दौलत हैं जो मेरी हस्ती में रहती है
बाकी जिंदगी तो फकीरी हैं वो अपनी मस्ती मे रहती हैं।

कल की परवाह छोड़ो जनाब कभी आज में जी कर देखो
खानाबदोशी उम्र हैं, वो तो दरिया-ए-कष्ती में रहती हैं।

मुसीबत में जो काम आए ऐसे हकीम और ताबीज तो नहीं
बस इंसानों की इंसानियत हैं, जो मेरी बस्ती में रहती हैं।

बेचैनी जब जब जहन में हो वहम पनपने लग जाता हैं
ऐसे हालात में सोच भी अपनी फीरकापरस्ती में रहती हैं।
~ अनामिका

Saturday, 16 May 2015

रह रह के दिल भी अब यहीं सोचता रहता हैं...

रह रह के दिल भी अब यहीं सोचता रहता हैं
क्या हैं जो दिन रात इसे बस नोचता रहता हैं।

खाली कुआ भी हैरानी से प्यासे को देखता हैं
जब उम्मीद लिए बाल्टी वो खींचता रहता हैं।

जुबान झूठी होकर भी आँखे जवाब दे देती हैं
अपने बारे में कोई, जब हाल पुंछता रहता हैं।

मुकद्दर जैसे हैवानियत का दूसरा नाम हैं
जो जख्मों को बार बार खरोचता रहता हैं।
~ अनामिका

Tuesday, 12 May 2015

जो खुशियाँ बचपन के सायकल की सवारी में नजर आईं।

ना सफारी में नजर आईं ना फरारी में नजर आईं
जो खुशियाँ बचपन के सायकल की सवारी में नजर आईं।

बारिशों से बचकर कभी जो मोहब्बत खफा सी रहती थी
वो दो सर को ढकने वाली एक छत्री में नजर आईं।

महलों में और बंगलों में वो इंसानियत नहीं दिखी
जो नुक्कड़ वाली चाय की एक टपरी में नजर आईं।

मन के तार छेड़ सकें ऐसी धुन अब कहाँ मिलती हैं?
जो बरसों पहले उस किशन की बाँसुरी में नजर आईं।
~ अनामिका

Monday, 11 May 2015

माथे की ये शिकन कभी मिटने नहीं देता।

गमों का ये खजाना किसी को लूटने नहीं देता
मैं शायर हूँ, अपने फन को छूटने नहीं देता।

मुकद्दर की रेखाएँ बिखरी हैं तो बिखरने दो
ऊपरवाले पर यकीन मेरा उठने नहीं देता।

सुकून मेरे चेहरे पर अक्सर खलता हैं लोगों को
तो माथे की ये शिकन कभी मिटने नहीं देता।

दोहरी शक्लों की दुनिया में जज्बात परदे में रखता हूँ
बड़ा शातिर हूँ, लफ्जों मे इनको बँटने नहीं देता।
~ अनामिका

Sunday, 10 May 2015

जीनत

माना तू माहताब हैं... फलक पर चमकता हैं.... कभी इस शम्मे फरोजाँ को छूकर देख... तेरे नूर की जीनत बढेगी।
~ अनामिका

माहताब- चाँद
फलक- आसमान
शमा- candle, lamp
फरोजा- चमकीला
नूर- चमक
जीनत- खूबसूरती

Tuesday, 5 May 2015

electricity problem.... just for fun....



#electricity_problem

ना बारिश हैं ना तूफान
फिर भी बिजली ये गुल हैं।
ऊपर से ये गरमी
ना कुछ ठंडा ना कूल हैं। :(

middle class वाली salary हैं
ना budget मे हैं inverter.
मैं हूँ बस इक common man
क्या यही मेरी भूल हैं? :(

एकाध दिन तो मजा हैं
पर सारे दिन ये सजा हैं।
हर रोज हमें बिजली रानी
करती april fool हैं। :(

गरमी तो हैं गरमी
और ऊपर से ये मच्छर
हाथ में तो आते नहीं
आँखो में झोंकते धूल हैं।

ना अब तक आई free बिजली
ना ही आया अच्छा दिन
काहे के ये कसमें वादे
और कैसे ये उसूल हैं? :\
~ अनामिका

Sunday, 3 May 2015

पंख निकलने से पहले ही चिड़ियों के हाथ पीले रहते हैं।

जहाँ रिश्तों में हो दरारें और मुँह पर ताले रहते हैं
वहाँ संगेमरमर के महलों में भी अक्सर जाले रहते हैं।

जरासा क्या अँधेरा हुआ, जुगनू भी तेवर दिखाएँगे
मजबूरी जब आन पड़े तो छुपकर उजाले रहते हैं।

पैसों में इतनी ताकत हैं की वर्दी के रंग भी बदलेंगे
आज के दौर में साँपो ने ही सपेरे पाले रहते हैं।

माशुका का हुक्म होते ही जो नंगे पाँव दौड़ने लगे
माँ ने जरासा पुकारते ही इनके पाँव में छाले रहते हैं।

हया और इज्जत तो वैसे तवायफों में भी होती हैं
जो मजबूरी और लाचारी के साँचे में ढाले रहते हैं।

जाहीलियत के नाम पर न जाने कब तक जुर्म होते रहेंगे
पंख निकलने से पहले ही चिड़ियों के हाथ पीले रहते हैं।
~ अनामिका