दिलजलों की बस्ती मे कोई गालिब तो कोई मीर निकलता हैं
टूटे हुए दिलों सें जब शेर-ओ-शायरी का तीर निकलता हैं।
ऊपर वाले की बंदगी में सबार के मायने समझने चाहिए
इम्तिहान की घड़ी में अक्सर नमाजी ही काफीर निकलता हैं।
शक्ल और अकल का वैसे कोई रिश्ता ही कब रहा हैं यारो
भोली सूरत के पीछे क्या पता कब दिमाग शातिर निकलता हैं।
जलजला कभी जो आएगा जहाँ अपनी मर्जी दफन हो जाएंगे
क्या फर्क पड़ता हैं फीर वो किस की जागीर निकलता हैं।
~ अनामिका
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