Thursday, 9 April 2015

छह कमरों का 'मकान' देकर दो कमरों का "घर" छुडाती है आखिर यही रिवायत होती है इन अमीरों के शहरों की।


छह कमरों का 'मकान' देकर दो कमरों का "घर" छुडाती है
आखिर यही रिवायत होती है इन अमीरों के शहरों की।

हाथ पैर सलामत होकर भी ये मुकद्दर के अपाहीज बनते हैं
कुछ ऐसी ही फितरत होती है इन लकीरों के फकीरों की।

मिट्टी का घरौंदा तोड़कर मुझे सपनों से बखूबी जगाती है
बस ऐसी नजाकत होती है इन समुंदरों के लहरों की।

जोश और जज्बा होकर भी वो वजीर-ए-आलम नहीं बन सकते
अब यही किस्मत होती है इन बादशाहों के वजीरों की।

अगर सच्चाई खून में मिला दे, और खुद्दारी जिगर से लगादे
तो फिर किसे जरूरत होती है इन जोहरी के जेवरों की।
~ अनामिका

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