Friday, 6 February 2015

मुकद्दर का आफताब जबसे ढलने लगा है ख्वाहीशों का नशा तो और भी चढ़ने लगा है।

मुकद्दर का आफताब जबसे ढलने लगा है
ख्वाहीशों का नशा तो और भी चढ़ने लगा है।

दगाबाजों के दरीया मे रहनुमा जब खुदा है
नाखुदा बनकर मेरा हौसला बढने लगा है।

इस दोस्ती मे इन रीश्तो मे अब खुशबू नही आती
जबसे इक गुलाब इस दीलमे पलने लगा है।

बेमोल पानी का इक कतरा सीपी मे क्या कैद हुआ
अनमोल मोती बनकर अब दुनिया मे खुलने लगा है।

भटकते मन के पंछी पे ऐतबार मत करना
आवारा वो पंछी अब हवा मे उडने लगा है।

चमकते उन रास्तों को पानी समझता है बेवकूफ
प्यासा वो अहू भी जमके दौडने लगा है।

रात की इस तनहाई मे उस चाँद को क्या "दोस्त" कहा
अमावस की काली रात मे वो भी छीपने लगा है।

जबसे मै पढने लगी हू उस "मीर" की गजले
मेरी बेजान आँखोमे नूर दीखने लगा है।
- अनामिका

आफताब- सुरज
रहनूमा- मार्गदर्षक
नाखुदा- नाव चलाने वाला
अहू- हीरन

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